SR HARNOT
अभी भी आटा पीस रहा है अपंग पूर्ण चंद का घराट
मेरा स्कूल और घराट का चोली दामन का साथ रहा है। उसके बाद भी जब शिमला नौकरी के लिए आना हुआ। उन दिनों दूर दूर तक आटा पिसाई की मशीनें नहीं थी। आठवीं के लिए जब सात किलोमीटर पैदल जिस मिडल स्कूल में जाया करते, पहाड़ी नदी पार करके जाना होता था। उसके किनारे तीन घराट थे। सुबह बस्ते के साथ दस पंद्रह किलो मक्की या गेंहू भी उठानी पड़ती जिसे एक घराट में रख देते और छुट्टी होते ले लिया करते। घर के लिए वही सात किलोमीटर की चढ़ाई।
गांव से भी घराट जाना होता था। पांच किलोमीटर दूर जिस घराट में जाना होता था आज उसे देखने बेटे आर्यन के साथ जाना हुआ। उसका भी बचपन से ही घराट से आंतरिक लगाव रहा है। अपने बड़े भाई जगदीश और अपनी मम्मी के साथ उसने भी खूब आटा पिसाया और ढोया है। उसने आज न केवल वीडियोग्राफी की बल्कि घराट के मालिक पूर्ण चंद से भी लंबी बातचीत हुई।
आज जब चकाचौंध और दिखावे का समय ज्यादा है, कदम कदम पर डिपो दुकानें और मशीनें हैं, उस वैचारिक संक्रमण काल में यदि कोई ग्रामीण अपनी नई पीढ़ी के सहयोग से घराट जैसी दुर्लभ होती धरोहर को बचाए हुए हैं तो वह साधुवाद का पात्र है, बावजूद इसके कि उसका दायां हाथ नहीं है, महज एक हाथ से ही सारे काम हो रहे हैं। 70 वर्ष के पूर्ण अपनी पिता की इस विरासत को बहुत संघर्ष से बचाए हुए हैं। इस घराट के साथ एक नाला बहता है और उसके ऊपर से प्रधानमंत्री सड़क योजना के अन्तर्गत सड़क निकली है जिसका सारा मलवा घराट के साथ नले में जमा है। पिछली बरसातों में वर्षा के पानी ने काफी नुकसान घराट का किया है। पूर्ण कहते हैं सरकार, पंचायत से बहुत गुहार लगाई कि घराट के साथ पक्की दीवारें खड़ी कर दें लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब खतरा है कि नाला आया तो घराट बह जाएगा। उसके पास इतना धन नहीं कि खुद इसे बचाए।
अब आधुनिक परिदृश्य से घराट गायब हैं। डिपो संस्कृति ने घरों को निकम्मा कर दिया है। इस समय किसी घराट का बचे रहना अजूबा ही है। पूर्ण आज भी अपने परिवार के लिए आटा इसी में पीसते हैं। और जो पुराने लोग घराट के आटे के मूल गुणों को समझते हैं वे कभी कभार मक्की गेहूं गाड़ियों में लाकर पिसा देते हैं। पूर्ण यानि घराटी माम (कवि मित्र आत्मा रंजन की एक चर्चित कहानी) के लिए ये भी संतोष की बात है कि उनका बेटा अन्य कार्यों के साथ इसकी देखरेख भी कर रहा है।
इस छोटे से घराट में पूर्ण ने घरेलू मधुमक्खियां(माहू) पाली हैं जिनकी दीवारों में 12 तीरियां हैं यानी माहू के बारह घर, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। मैंने आज तक पुराने घरों में केवल एक आध तीरी ही देखी है जो अब नदारद है। यह एक और उपलब्धि उनकी है।
एक अपंग ग्रामीण द्वारा आज के समय में घराट जैसी धरोहर को बचाए रखना बड़ी बात है। हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी स्वदेशी की तो बात करते हैं लेकिन जो लोग इस स्वदेशी पन या धरोहर को बचाए हुए हैं उन्हें न तो हमारी हाईटेक पंचायतें और न ही हाईटेक सरकारी बाबू जानते हैं, नहीं तो एक घराट को महज कुछ हजार रूपए की पक्की दीवारें लगाकर बचाना कोई मुश्किल काम नहीं था।
मेरा “घराटी माम” आत्मा रंजन माफ करना पूर्ण चंद जी को शत शत नमन। मुझ से इसके लिए जो मदद होगी मैं जरूर करूंगा बशर्ते कोरोना महाराज ने मेहरबानी कर ली तो।